Thursday 29 December 2016

यूं जीत लिया जिंदगी की रोशनी ने कैंसर के अंधेरों को


हरमाला बताती हैं, ‘बात उन दिनों की है जब मैं शादी के बाद मॉन्ट्रियल में अपनी थीसिस पूरी कर रही थी। जिंदगी में जो कुछ चाहिए था, सब था। अच्छा पति, तीन साल का बेटा, सुखमय जीवन और कुछ करने की चाह। तभी अचानक सब कुछ बदल गया। सन 1986 में, जब मैं 33 साल की थी, पता चला कि मुझे कैंसर है और वह भी चौथे स्टेज का। एक पल को लगा जिंदगी मुझसे रूठ गई। अब सब कुछ खत्म होने को है। लेकिन अपने सामने छोटे से बेटे को देख जीने की इच्छा ने साथ नहीं छोड़ा। इलाज चला। सही ट्रीटमेंट और घरवालों के सहयोग ने टूटने नहीं दिया। इस पूरी प्रक्रिया में मैंने यह जाना कि कैंसर जैसी बीमारी को झेलना आसान नहीं है और उस पर से समाज का रवैया बची-खुची उम्मीद को खत्म करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। लोग कैंसर जैसी बीमारी का नाम लेने से भी डरते हैं।
‘एक लंबी प्रक्रिया और मानसिक व शारीरिक कष्ट के बाद मैं ठीक तो हो गई, लेकिन इस नागवार डरावनी बीमारी की अनेक सच्चाइयों से रूबरू भी हो गई। मेरे पास इलाज के लिए पैसा भी था और साधन भी। ऐसे अनेक लोग हैं जो न ठीक से इलाज ही करवा पाते हैं और न ही उन्हें सेवा और आत्मीयता मिल पाती है। वे बीमारी से ज्यादा हालात से मजबूर हो हार मान लेते हैं। मुझे अब अपने जीने का मकसद मिल गया था। मुझे ऐसे ही लोगों के लिए काम करना था। ’

कैंसर पीड़ितों के लिए मदद का हाथ
‘1987 में भारत आकर मैंने कैन सपोर्ट नास से एक संस्था की शुरुआत की। इस संस्था को शुरू करने में ही ढेरों परेशानियां हुईं। आम लोग कैंसर पीड़ितों की मदद करने से भी हिचकते थे। जो लोग कैंसर से जूझ रहे थे यह इस बीमारी को मात दे चुके थे, सिर्फ वही कैंसर सहयोग को सहायता देने के लिए तैयार हो पाते थे। कुछ स्वयंसेवियों ने भी हमारा साथ दिया। हम कैंसर क्लीनिक जाते। कैंसर पीड़ितों की तकलीफ सुनते और कोशिश करते कि उनके इलाज को नि:शुल्क करवा पाएं। उन्हें सुनना, समझना और सांत्वना देना हमारा लक्ष्य था। इस बीमारी के प्रति लोगों में जागरूकता न के बराकर थी। लोगों को कैंसर से संबंधित सभी प्रकार की जानकारी देना भी हमारे दल का काम था।

‘दस साल एशिया के सबसे बड़े आई हॉस्पिटल श्रॉफ की मैं पीआर रही। लेकिन मुझे कुछ बड़ा करना था। अंबानी की तरह अपना बिजनेस साम्राज्य खड़ा करना था। इसी दिशा में सिल्वर लाइनिंग शुरू की। घने बादलों के बीच उम्मीद की किरण के रूप में। तब से फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। मानव सेवा अवॉर्ड से लेकर ब्रेवरी अवॉर्ड जैसे तमाम पुरस्कार मिले। हर कदम पर बढ़ते हुए कड़वी लेकिन ठोस सच्चाइयो ंका सामना करना पड़ा। पर, इतने सालों के अपने अनुभव से मुझे एक ही बात समझ में आई है कि सपने आपके सामने होते हैं, आपको उसे हाथ बढ़ाकर पकड़ना भर होता है।’
Source - HT

No comments:

Post a Comment