Thursday 14 July 2016

प्रेरणापूर्ण जीवंत उदाहरण - आई ऐ एस - रमेश घोलप / True Inspirational story of IAS Ramesh Ghopal



"बचपन में मां के साथ बेचते थे चूड़ी, IAS बनने के बाद ही लौटे अपने गांव"
रांची/धनबाद।
'चूड़ी ले लो...चूड़ी...' चूड़ी बेचने वाली यह आवाज कभी गांव की गलियों में हर दिन सुनाई पड़ती थी। पहले मां आवाज लगाती और फिर उनका पुत्र बार-बार इसे दोहरा कर खरीदार जुटाता। 10 साल की उम्र तक मां के साथ चूड़ी बेचने वाले उस बच्चे ने कमाल कर दिखाया। उस बच्चे की पहचान आज आईएएस रमेश घोलप के रूप में सबके सामने है। महाराष्ट्र के सोलापुर जिला के वारसी तहसील स्थित उसके गांव 'महागांव' में रमेश की संघर्ष की कहानी हर जुबान पर है। रमेश घोलप अभी बतौर एसडीओ झारखंड के बोकारो जिला स्थित बेरमो में प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं।
इन्होंने अभाव के बीच ना सिर्फ आईएएस बनने का सपना देखा, बल्कि इसे अपनी मेहनत से सच भी कर दिखाया। काम किया, रुपए जुटाए और फिर पढ़ा। कलेक्टर बनने का सपना आंखों में संजोए रमेश पुणे पहुंचे। पहले प्रयास में विफल रहे, पर वे डटे रहे। साल 2011 में पुन: यूपीएससी की परीक्षा दी। इसमें रमेश 287वां स्थान प्राप्त कर आईएसएस बन चुके थे। पर खुशी तब दोगुनी हो गई, जब वे स्टेट सर्विस की परीक्षा में राज्य में प्रथम आ गए।
****"संघर्ष की कहानी, रमेश की जुबानी"***
#बचपन :
दिन में चूड़ी बेचता, रात में पढ़ता
दिन भर चूड़ी बेचने के बाद जो पैसे जमा होते थे, उसे पिताजी अपनी शराब पर खर्च कर देते थे। रहने के लिए ना घर था और पढ़ने के लिए ना पैसे। मौसी के इंदिरा आवास में ही हम रहते थे। मैट्रिक परीक्षा से एक माह पूर्व ही पिता का निधन हो गया। इस सदमे ने मुझे झकझोरा। विपरीत हालात में मैट्रिक परीक्षा दी और 88.50% अंक हासिल किया।
#पहली_नौकरी:
शिक्षक बना, मिला नया लक्ष्य
मैंने 2005 में इंटर पास किया और 2008 में डिप्लोमा करके शिक्षक की नौकरी की। यहां शिक्षकों के आंदोलन का नेतृत्व किया। आंदोलन करते हुए मांग पत्र देने तहसीलदार के पास जाता था। बस इसी ने मन में कौतुहल मचा दी। आखिर ऐसा क्यों कि कोई तहसीलदार और मैं सिर्फ एक शिक्षक। मैंने तहसीलदार बनने की ठान ली।
#संघर्ष:
गाय खरीदने के लिए मिले ऋण से पढ़ा
मां को सामूहिक ऋण योजना के तहत गाय खरीदने के नाम पर 18 हजार ऋण मिले। इस राशि ने मुझे पढ़ाई जारी रखने में मदद की। इसे लेकर मैं तहसीलदार की पढ़ाई करने निकला था। बाद में इसी रुपए से आईएएस की पढ़ाई की। दीवारों पर नेताओं की घोषणाओं, दुकानों का प्रचार व़ शादी की पेंटिंग कर पढ़ाई के पैसे की व्यवस्था करता था।
#जिद:
अफसर बन कर ही लौटा अपने गांव
मैंने वर्ष 2010 में अपनी मां को पंचायत के मुखिया के चुनाव में खड़ा किया। हमें लगता था जीत हमारी होगी, पर मां हार गई थी। इस हार के बाद मैंने गांव छोड़ने का निर्णय किया। मैंने तय कर लिया कि अब इस गांव में तभी आएंगे, जब अफसर बन जाएंगे। 4 मई 2012 को अफसर बनकर पहली बार गांव पहुंचा। जहां मेरा जोरदार स्वागत हुआ।
#संदेश :
टैलेंट है तो कोई नहीं रोक सकता।
मैंने गरीबी में बचपन गुजारा है। गरीबी को अच्छी तरह जानता हूं। मुझे लगा कि व्यवस्था को दो ही रास्ते पर चल कर बदला जा सकता है। पहला राजनीति में जाकर या फिर प्रशासनिक क्षेत्र में आकर। राजनीति में जाना सबके लिए संभव नहीं। यहां परिवार और समाज देखा जाता है जबकि प्रशासनिक क्षेत्र में ऐसा नहीं है। यहां टैलेंट बोलता है। अगर टैलेंट है, तो आपको सफल होने से कोई नहीं रोक सकता।

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